उपन्यास >> वह जो यथार्थ था वह जो यथार्थ थाअखिलेश तत्भव
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अपने सामाजिक दृष्टिकोण, भाषा और पठनीयता के लिए खासी ख्याति अर्जित करनेवाले अखिलेश वह जो यथार्थ था में कुछ नई सिद्धियों और हुनर के साथ हैं...
Vah JO Yatharth Tha - A Hindi Book - by Akhilesh
अपने सामाजिक दृष्टिकोण, भाषा और पठनीयता के लिए खासी ख्याति अर्जित करनेवाले अखिलेश वह जो यथार्थ था में कुछ नई सिद्धियों और हुनर के साथ हैं।
यहाँ अखिलेश अपने बचपन के कस्बे के जरिये वास्तविकता, रहस्य, विचार और कल्पना का ऐसा जादू उपस्थित करते हैं कि सारी चीजें एक नए अर्थ की रोशनी में नहाकर चमकने लगती हैं। वास्तिकताएं अपने रहस्य प्रकट करने लगती हैं तो रहस्य अपनी वास्तविकताएं दिखाते हैं। विचारों में कल्पना की माया प्रविष्ट हो जाती है और कल्पना में विचारों की धार। ये कारगुजारियाँ करते हुए अखिलेश वस्तुओं और उनकी अन्विति का ऐसा विखण्डन करते हैं कि उनकी छिपी-दबी हुई अनंत शक्तियाँ और सुन्दरताएँ स्वतंत्र होकर खिल जाती हैं।
कथाकार अखिलेश ने अपने इस कथित गैरकथात्मक रचना में बचपन के कस्बे का इतना आत्मीय तथा सर्जनात्मक इस्तेमाल किया है कि वह जो यथार्थ था अपने समग्र रूप में करीब करीब एक प्रभावपूर्ण उपन्यास बन जाता है। इस किताब की तैयारी में अखिलेश ने ऐसे अनोखे रसायनों का इस्तेमाल किया है कि विधाएँ तिरोहित हो जाती हैं और रचना प्रकट हो जाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो वह जो यथार्थ था के साथ सामाजिक, अध्ययन, निबंध, रिपोर्ताज, संस्मरण, आत्मकथा, कविता यहाँ तक कि यदा-कदा आलोचना विधा के भी सल्व को सोखकर गद्य के सर्वथा नये अवतार को जन्म देती है।
वह जो यथार्थ था का कस्बा लगभग तीस साल पहले तक लेखक के जीवन में था, फिर वह लेखक की स्मृति में बसकर दूसरा कस्बा हो जाता है और आख़िर में रचना में दाख़िल होकर तीसरा। जबकि वह पुराना कस्बा अपने वास्तविक जीवन में भी बदल रहा है। आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक बदलाव उसका कायाकल्प कर रहे हैं। वह जो यथार्थ था उक्त रद्दोबदल का आईना भी है। इसी बिंदु पर अखिलेश का यह प्रयत्न कुछ वर्षों में हुए भारतीय समाज के परिवर्तन और पतन का रूपक बनकर हमें विराट् अनुभूति से भर देता है।
यह अत्युक्ति नहीं होगी कि वह जो यथार्थ था जैसी रचनाएँ किसी भाषा में कभी-कभी ही मुमकिन हो पाती हैं।
यहाँ अखिलेश अपने बचपन के कस्बे के जरिये वास्तविकता, रहस्य, विचार और कल्पना का ऐसा जादू उपस्थित करते हैं कि सारी चीजें एक नए अर्थ की रोशनी में नहाकर चमकने लगती हैं। वास्तिकताएं अपने रहस्य प्रकट करने लगती हैं तो रहस्य अपनी वास्तविकताएं दिखाते हैं। विचारों में कल्पना की माया प्रविष्ट हो जाती है और कल्पना में विचारों की धार। ये कारगुजारियाँ करते हुए अखिलेश वस्तुओं और उनकी अन्विति का ऐसा विखण्डन करते हैं कि उनकी छिपी-दबी हुई अनंत शक्तियाँ और सुन्दरताएँ स्वतंत्र होकर खिल जाती हैं।
कथाकार अखिलेश ने अपने इस कथित गैरकथात्मक रचना में बचपन के कस्बे का इतना आत्मीय तथा सर्जनात्मक इस्तेमाल किया है कि वह जो यथार्थ था अपने समग्र रूप में करीब करीब एक प्रभावपूर्ण उपन्यास बन जाता है। इस किताब की तैयारी में अखिलेश ने ऐसे अनोखे रसायनों का इस्तेमाल किया है कि विधाएँ तिरोहित हो जाती हैं और रचना प्रकट हो जाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो वह जो यथार्थ था के साथ सामाजिक, अध्ययन, निबंध, रिपोर्ताज, संस्मरण, आत्मकथा, कविता यहाँ तक कि यदा-कदा आलोचना विधा के भी सल्व को सोखकर गद्य के सर्वथा नये अवतार को जन्म देती है।
वह जो यथार्थ था का कस्बा लगभग तीस साल पहले तक लेखक के जीवन में था, फिर वह लेखक की स्मृति में बसकर दूसरा कस्बा हो जाता है और आख़िर में रचना में दाख़िल होकर तीसरा। जबकि वह पुराना कस्बा अपने वास्तविक जीवन में भी बदल रहा है। आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक बदलाव उसका कायाकल्प कर रहे हैं। वह जो यथार्थ था उक्त रद्दोबदल का आईना भी है। इसी बिंदु पर अखिलेश का यह प्रयत्न कुछ वर्षों में हुए भारतीय समाज के परिवर्तन और पतन का रूपक बनकर हमें विराट् अनुभूति से भर देता है।
यह अत्युक्ति नहीं होगी कि वह जो यथार्थ था जैसी रचनाएँ किसी भाषा में कभी-कभी ही मुमकिन हो पाती हैं।
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